Ujjain ke Mahakal Jyotirling Story ( कहानी )
एक समय की बात है, अवन्ति नगरी में एक वेदप्रिय नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था और भगवान शिव के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा थी। उसका जीवन सादगी और ईश्वर भक्ति में डूबा हुआ था। वेदप्रिय का हर दिन भगवान शिव की आराधना के साथ शुरू होता था। प्रतिदिन सुबह सूर्योदय से पहले वह स्नान करके पवित्र होता और फिर अपने हाथों से मिट्टी का एक शिवलिंग बनाता। उस शिवलिंग को वह फूल, बेलपत्र, और जल से सजाता और भगवान शिव की पूजा करता। उसकी पूजा में इतनी निष्ठा और समर्पण था कि वह हर छोटी-बड़ी चीज को बहुत ही सावधानी से करता। वेदप्रिय का मन हर पल भगवान शिव के ध्यान में लीन रहता था। उसकी भक्ति इतनी गहरी और निस्वार्थ थी कि उसे संसारिक मोह-माया से कोई लगाव नहीं था। वह हर क्षण यही कामना करता कि उसका जीवन भगवान शिव की सेवा में बीते और उनकी कृपा सदैव उस पर बनी रहे।
एक दिन, जब वेदप्रिय अपने नियमित कर्म के अनुसार शिवलिंग की पूजा में लीन था, तभी अचानक एक अद्भुत घटना घटी। पूजा के दौरान ही उसके सामने एक बालक प्रकट हुआ। यह कोई साधारण बालक नहीं था, बल्कि भगवान शिव का एक गण था, जो उनकी आज्ञा से वेदप्रिय के पास आया था।
बालक का तेज और उसकी मुस्कान अलौकिक थी, जिसे देखकर वेदप्रिय आश्चर्यचकित रह गया। बालक ने वेदप्रिय से कहा, “हे ब्राह्मण! तुम्हारी निष्काम भक्ति और समर्पण से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हैं। उन्होंने मुझे तुम्हारे पास यह संदेश देने के लिए भेजा है। तुम्हारी इच्छा क्या है? तुम जो भी मांगोगे, वह तुम्हें प्रदान किया जाएगा।”
वेदप्रिय ने बालक के चरणों में झुककर विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “हे दिव्य बालक! मैं एक साधारण ब्राह्मण हूं और मेरी केवल एक ही इच्छा है। मैं भगवान शिव के दर्शन करना चाहता हूं। मुझे संसार के किसी भी सुख या वैभव की इच्छा नहीं है। मेरा मन केवल भगवान शिव के चरणों में लगा है।” बालक ने वेदप्रिय की ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा, “हे वेदप्रिय! तुम्हारी भक्ति और निष्काम भावना वास्तव में प्रशंसनीय है। तुम्हारे हृदय में शिव के प्रति जो प्रेम और समर्पण है, उसे देखकर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारी भक्ति के फलस्वरूप, मैं तुम्हें एक वरदान देता हूं। तुम्हारे घर में चार सुंदर और गुणवान बच्चों का जन्म होगा, जो तुम्हारे कुल का नाम रोशन करेंगे।” इतना कहकर वह दिव्य बालक अदृश्य हो गया, मानो वह कभी वहां था ही नहीं। वेदप्रिय ने अपने आप को धन्य महसूस किया और भगवान शिव की कृपा के लिए उनके चरणों में मन ही मन कृतज्ञता व्यक्त की। उस दिन से वह और भी अधिक श्रद्धा और भक्ति के साथ भगवान शिव की आराधना करने लगा, यह जानते हुए कि भगवान की कृपा सदैव उसके साथ है।
कुछ समय बीतने के बाद, वेदप्रिय के घर में चार पुत्रों का जन्म हुआ। इन चारों बालकों के नाम उनके गुणों और संस्कारों को दर्शाते थे। बड़े पुत्र का नाम देवप्रिय था| दूसरे पुत्र का नाम प्रियमेधा था| तीसरे पुत्र का नाम संस्कृत रखा गया था। और चौथे पुत्र का नाम सुव्रत था| वेदप्रिय का परिवार अब पूर्ण हो चुका था, और चारों बेटे अपने पिता की तरह ही धर्म-कर्म में लीन रहते थे। उन चारों भाइयों का हृदय भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति से भरा हुआ था। वे अपने पिता वेदप्रिय के मार्ग पर चलते हुए, उनके संस्कारों और आदर्शों को अपने जीवन में उतारने लगे थे। चारों भाई अपने पिता की तरह, प्रतिदिन सुबह सूर्योदय से पहले उठते, स्नान करके पवित्र होते, और फिर अपने हाथों से मिट्टी का एक शिवलिंग बनाते। वे उस शिवलिंग को फूल, बेलपत्र, और जल से सजाते और भगवान शिव की पूजा करते। उनकी पूजा में इतनी निष्ठा और समर्पण था कि वे हर छोटी-बड़ी चीज को बहुत ही सावधानी और श्रद्धा से करते। उनके मन में भगवान शिव के प्रति इतनी गहरी भक्ति थी कि वे हर पल उनके ध्यान में लीन रहते।
उन दिनों एक महा बलशाली दूषण नमक एक राक्षस रहा करता था|दुषण और उसकी सेना को स्वयं ब्रह्मा देव से अजेयता का वरदान प्राप्त था, जिसके कारण वह अत्यंत शक्तिशाली और अहंकारी हो गया था। इस वरदान के मद में चूर होकर दुषण ने पृथ्वी पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। वह ऋषि-मुनियों, साधारण जनों और यहां तक कि देवताओं को भी परेशान करने लगा। उसका एकमात्र उद्देश्य धर्म का नाश करना और अधर्म का प्रसार करना था। दुषण के अत्याचारों से पूरी पृथ्वी त्रस्त हो गई थी। दुषण को अपनी शक्ति पर इतना अहंकार था कि उसने स्वयं को अजेय समझ लिया था। उसने देवताओं को चुनौती दी और उनके मंदिरों को नष्ट करना शुरू कर दिया। उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि उसने भगवान शिव के भक्तों को सताना शुरू कर दिया। दुषण ने घोषणा कि कोई भी देवता उसे रोक नहीं सकता। उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर दुषण राक्षस ने ऋषियों को परेशान करना शुरू कर दिया था। उसने ऋषियों के तप और यज्ञ को भंग कर दिया और उन्हें जान से मारने की धमकी दी। दुषण और उसकी सेना ने ऋषियों के आश्रमों को नष्ट कर दिया और उनके धार्मिक कार्यों में बाधा डाली। उसने ऋषियों से कहा, “यहां किसी भी देवता की पूजा नहीं होने दूंगा।”
इसके बाद, दुषण ने अपनी सेना के साथ अवन्ति नगरी पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। उसका उद्देश्य वहां के ब्राह्मणों को सताना और उन्हें मारना था। दुषण और उसकी सेना ने अवन्ति नगरी में घुसपैठ की और वहां के निवासियों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने ब्राह्मणों को डराने-धमकाने और उनके धार्मिक कार्यों को रोकने का प्रयास किया। हालांकि, दुषण के इतने अत्याचारों के बावजूद, अवन्ति नगरी के ब्राह्मण भगवान शिव पर अपना विश्वास बनाए रहे। वे भयभीत नहीं हुए और शिवजी की कृपा पर भरोसा करते रहे। कुछ समय बाद, जब अवन्ति नगरी के ब्राह्मण इस संकट से घबराने लगे, तो उन चार शिवभक्त भाइयों ने उन्हें आश्वासन दिया। उन्होंने कहा, “आप शिवजी पर भरोसा रखिए। वे हमारी रक्षा अवश्य करेंगे।” इसके बाद, वे चारों भाई भगवान शिव की पूजा में लीन हो गए और उनकी उपासना करने लगे।
दुषण ने जब यह दृश्य देखा, तो उसने उन चारों भाइयों को मारने का निर्णय लिया। वह अपने शस्त्र लेकर उनके पास पहुंचा और उन्हें मारने के लिए हाथ उठाया। लेकिन जैसे ही दुषण ने उन पर प्रहार करने का प्रयास किया, अचानक एक तेज आवाज हुई और शिवलिंग के पास एक बड़ा गड्ढा बन गया। उस गड्ढे से भयंकर रूपधारी स्वयं भगवान शिव प्रकट हुए। उनका रूप इतना विकराल और तेजस्वी था| उनके हाथ में त्रिशूल था और उनकी आंखों में क्रोध की ज्वाला धधक रही थी।
भगवान शिव ने गर्जना करते हुए कहा, “हे दूषण! तूने निर्दोष लोगों को सताया है अवन्ति नगर की शांति भंग की है। आज मैं तेरे अत्याचारों का अंत करूंगा।” दूषण ने भगवान शिव को देखकर घमंड से कहा, “तुम कौन हो जो मेरे सामने खड़े हो? मैं तुम्हें भी नष्ट कर दूंगा।”भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं महाकाल हूं, समय और मृत्यु का देवता। आज तेरा अंत निश्चित है।” दूषण ने भगवान शिव पर हमला कर दिया। उसने अपनी भयंकर शक्तियों का प्रयोग किया और भगवान शिव को नष्ट करने का प्रयास किया। लेकिन भगवान शिव अजेय थे। उन्होंने अपने त्रिशूल से दूषण के हर हमले को विफल कर दिया। यह युद्ध अत्यंत भीषण था। आकाश में बिजली चमक रही थी, और धरती कांप रही थी।
अंत में, भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से दूषण का वध कर दिया। दूषण का शरीर धरती पर गिर गया, और उसका अंत हो गया। अवन्ति नगर के लोगों ने भगवान शिव की जय-जयकार की और उन्हें धन्यवाद दिया। दूषण नामक राक्षस का वध करने के बाद, भगवान शिव ने अवन्ति नगर के निवासियों को संबोधित करते हुए कहा, “हे प्रिय भक्तों! तुम्हारी अटूट भक्ति और समर्पण से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। तुमने मेरे प्रति जो श्रद्धा और प्रेम दिखाया है, उसके लिए मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूं। तुम जो भी इच्छा रखते हो, मुझसे मांगो, मैं तुम्हें वह वरदान अवश्य दूंगा।”
तब वहां उपस्थित ब्राह्मणों ने भगवान शिव से निवेदन किया, “हे महादेव! हे संसार के स्वामी! हमारी एक विनती है कि आप हमें इस संसार के बंधनों से मुक्ति प्रदान करें। साथ ही, हम चाहते हैं कि आप स्वयं इस अवन्ति नगरी में प्रकट होकर यहां निवास करें। इस पवित्र भूमि को अपने दिव्य प्रभाव से और भी पावन बनाइए।
हमारी इच्छा है कि आप यहां महाकाल के रूप में विराजमान हों और सदैव दुष्टों का नाश करने वाले महाकाल बनकर इस स्थान की रक्षा करें।” भगवान शिव ने अपने भक्तों की इस प्रार्थना को सुनकर उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर कहा, “तथास्तु। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूं। अब से मैं यहां महाकाल के रूप में ज्योतिर्लिंग के स्वरूप में विराजमान रहूंगा। यह स्थान सदैव पवित्र और दिव्य बना रहेगा, और मैं यहां निवास करके अपने भक्तों की रक्षा करूंगा तथा दुष्टों का संहार करूंगा।” इस प्रकार, भगवान शिव ने अवन्ति नगर यानिकि आज के उज्जैन में महाकाल के रूप में अपना निवास स्थापित किया और यह स्थान हिन्दू धर्म में एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध हुआ| यहां आज भी महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं, जो भक्तों के लिए मोक्ष और शांति का स्रोत माने जाते हैं।
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