Krishna Story (कृष्ण की कहानी )
कृष्ण और रुक्मिणी की प्रेम कहानी भक्ति और प्रेम का एक अद्भुत संगम है। विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी, सुंदरता और गुणों से संपन्न थीं। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। रुक्मिणी ने बचपन से ही कृष्ण की महिमा सुनी थी। उनके बारे में सुनकर उनके मन में कृष्ण के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम जाग उठा। वह मन ही मन कृष्ण को अपना जीवनसाथी मानने लगीं।
लेकिन रुक्मिणी के भाई रुक्मी ने उनका विवाह चेदि के राजा शिशुपाल से तय कर दिया। रुक्मिणी इस विवाह के विरोध में थीं। उन्होंने कृष्ण को एक गुप्त संदेश भेजा, जिसमें उन्होंने अपनी व्यथा बताई और कृष्ण से उन्हें बचाने की प्रार्थना की। संदेश में लिखा था, “हे माधव, मैं आपकी हूँ। कृपया मुझे इस अवांछित विवाह से बचाएं।”
कृष्ण ने रुक्मिणी का संदेश पढ़ा और उनकी पीड़ा को समझा। वह तुरंत द्वारका से विदर्भ के लिए रवाना हो गए। विवाह के दिन, जब रुक्मिणी मंदिर में देवी की पूजा कर रही थीं, कृष्ण वहाँ पहुँचे। उन्होंने रुक्मिणी को अपने रथ पर बैठाया और द्वारका की ओर चल पड़े। रुक्मी और शिशुपाल ने कृष्ण को रोकने का प्रयास किया, लेकिन कृष्ण ने उन्हें परास्त कर दिया।
द्वारका पहुँचकर कृष्ण और रुक्मिणी का विवाह हुआ। यह विवाह न केवल दो हृदयों का मिलन था, बल्कि भक्ति और प्रेम का प्रतीक भी बन गया। रुक्मिणी ने कृष्ण के साथ अपना जीवन सुखपूर्वक बिताया। वह कृष्ण की प्रिय पत्नी बनीं और उनके जीवन में विशेष स्थान रखती थीं। रुक्मिणी कृष्ण की प्रिय पत्नी थीं, और उनका प्रेम अटूट था। लेकिन एक दिन, एक छोटी सी गतलफेमि ने उनके बीच दूरी पैदा कर दी।
वह दिन द्वारका में एक उत्सव का था। कृष्ण सभी रानियों के साथ बैठे थे और सभी उनका आनंद ले रहे थे। रुक्मिणी ने देखा कि कृष्ण सत्यभामा के साथ अधिक समय बिता रहे हैं। यह देखकर उनके मन में ईर्ष्या और दुख की भावना उत्पन्न हो गई। उन्हें लगा कि कृष्ण उनकी उपेक्षा कर रहे हैं। मन में व्यथित होकर, रुक्मिणी ने चुपचाप द्वारका छोड़ने का निर्णय लिया। रुक्मिणी द्वारका से दूर एक वन में चली गईं। वहाँ उन्होंने एक छोटा सा आश्रम बनाया और एकांत में रहने लगीं। उनका मन कृष्ण के प्रेम से भरा था, लेकिन वह अपने अहंकार और दुख के कारण वापस नहीं लौट रही थीं।
दूसरी ओर, कृष्ण को जब पता चला कि रुक्मिणी द्वारका छोड़कर चली गई हैं, तो वह बहुत चिंतित हो गए। उन्होंने रुक्मिणी को खोजने के लिए अपने सैनिकों को भेजा, लेकिन रुक्मिणी कहीं नहीं मिलीं। तब कृष्ण स्वयं उन्हें ढूंढने निकल पड़े। कृष्ण ने रुक्मिणी के पदचिन्हों का पीछा करते हुए उस वन में पहुँचे, जहाँ वह रह रही थीं। जब रुक्मिणी ने कृष्ण को देखा, तो उनका मन भर आया। कृष्ण ने उनसे पूछा, “प्रिय रुक्मिणी, तुमने द्वारका क्यों छोड़ दिया? क्या मैंने तुम्हें किसी प्रकार से दुख पहुँचाया है?”रुक्मिणी ने आँसू भरी आँखों से कहा, “हे प्रभु, मैंने सोचा कि आप मुझसे दूर हो गए हैं। आप सत्यभामा के साथ अधिक समय बिता रहे थे, और मुझे लगा कि आप मुझे भूल गए हैं।
“कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “रुक्मिणी, तुम मेरे हृदय की रानी हो। मेरा प्रेम सभी के लिए समान है, लेकिन तुम्हारे लिए मेरे हृदय में एक विशेष स्थान है। तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है।”रुक्मिणी ने कृष्ण की बात सुनी और उनके प्रेम को महसूस किया। वह समझ गईं कि उनकी ईर्ष्या निराधार थी। कृष्ण ने उन्हें गले लगाया, और दोनों ने एक दूसरे के प्रेम को नए सिरे से महसूस किया।उनका प्रेम और गहरा हो गया, और वह दिन उनके जीवन का एक नया अध्याय बन गया।
किसी ने सोचा नहीं था, उस्सी वन्न में लिखी जाएगी एक और कहानी |भक्त पुंडलिक थे रहते वाहा जिसकी वजह लिखी गई एक और कहानी |पुंडलिक एक महान भक्त थे, जो अपने माता-पिता की सेवा में लीन रहते थे। उनकी भक्ति और कर्तव्यनिष्ठा की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। एक दिन, भगवान कृष्ण ने उनकी भक्ति की परीक्षा लेने का निर्णय लिया।कृष्ण पुंडलिक के आश्रम पहुँचे, लेकिन पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा में इतने तल्लीन थे कि उन्होंने कृष्ण को तुरंत ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कृष्ण से कहा, “हे प्रभु, कृपया थोड़ा प्रतीक्षा करें। मैं अपने माता-पिता की सेवा पूर्ण करके आपकी सेवा में उपस्थित होऊंगा।
“कृष्ण पुंडलिक की कर्तव्यनिष्ठा और भक्ति से प्रसन्न हो गए। पुंडलिक ने घर के बाहर एक ईट फ़ेकी ओर्र कहा, हे माधव आप इसपे विश्राम करें| माधव ने उस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया। पुंडलिक ने जब अपने कार्य पूरे किए, तो उन्होंने कृष्ण को ईंट पर खड़े देखा। वह तुरंत उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा मांगने लगे। कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “पुंडलिक, तुम्हारी भक्ति और कर्तव्यनिष्ठा ने मुझे प्रसन्न कर दिया है। मैं तुम्हारी भक्ति से इतना प्रसन्न हूँ कि इसी ईंट पर खड़े होकर तुम्हें दर्शन दूंगा।”तब से, कृष्ण का विठ्ठल रूप पुंडलिक की भक्ति का प्रतीक बन गया। विठ्ठल रूप में कृष्ण अपने हाथ कमर पर रखकर खड़े होते हैं, जो उनकी पुंडलिक के प्रति अनंत प्रेम और धैर्य को दर्शाता है। यह कहानी हमें सिखाती है कि भक्ति और कर्तव्यनिष्ठा से भगवान प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों के लिए सदैव तैयार रहते हैं।
कहा जाता है कि जब विठ्ठल ने पुंडलिक की भक्ति से प्रसन्न होकर पंढरपुर में निवास करने का निर्णय लिया, तो रुक्मिणी भी उनके साथ आईं। वह विठ्ठल की सेवा और भक्ति में पूरी तरह से लीन हो गईं।रुक्मिणी की भक्ति ने पंढरपुर को और पवित्र बना दिया। आज भी, पंढरपुर में विठ्ठल और रुक्मिणी की भक्ति की गाथा गाई जाती है, और भक्त उनके दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति और प्रेम से भगवान प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों के साथ सदैव रहते हैं।
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