Bhimashankar Jyotirling : भगवान शिव केसे हुए प्रकटअपने भक्त को बाँचे जानियो इस कहानी में 2025
Omkar.B
Bhimashankar Jyotirling Story ( कहानी )
प्राचीन काल में कामरूप देश में एक भयंकर और अत्याचारी राक्षस का जन्म हुआ, जिसका नाम था भीम। वह असाधारण बलशाली, पराक्रमी और धर्म का विरोधी था। उसका जन्म राक्षसी करकटी के गर्भ से हुआ था, और उसके पिता कोई और नहीं बल्कि लंकापति रावण के भाई कुंभकर्ण थे।”जब भगवान श्रीराम ने लंकापति रावण के भाई कुंभकर्ण का वध किया, तब उसकी पत्नी करकटी विधवा हो गई। पति के न रहने पर वह अपने माता-पिता के पास लौट गई। उसके माता-पिता भी राक्षस कुल से थे और उनका स्वभाव अत्यंत हिंसक एवं क्रूर था। एक दिन की बात है, जब अगस्त्य मुनि के एक साधारण शिष्य उनके आश्रम के निकट से गुजर रहे थे। करकटी के माता-पिता ने उस निर्दोष तपस्वी को देखा तो उसे पकड़कर भोजन बनाने का निश्चय किया।
जब उन्होंने उस ब्राह्मण को मारने का प्रयास किया, तो उस तपस्वी ने अपनी योगशक्ति से उनके दुष्ट इरादों को भाँप लिया। इस घृणित कृत्य से क्रोधित होकर उस मुनि ने तत्काल उन दोनों राक्षसों को भस्म कर देने वाला भीषण शाप दे दिया। शाप के प्रभाव से करकटी के माता-पिता वहीं जलकर राख हो गए।अब करकटी पूरी तरह अकेली रह गई। पति और माता-पिता के न रहने से वह संसार में एकाकी हो चुकी थी। तब वह सह्य पर्वत की गुफाओं में जाकर रहने लगी। वहीं उसने अपने पुत्र भीम को जन्म दिया और उसका पालन-पोषण किया। समय बीतता गया और भीम दिन-प्रतिदन बलिष्ठ होता चला गया। अंततः वह एक विशालकाय, अत्यंत शक्तिशाली और भयानक राक्षस के रूप में विकसित हो गया, जिसके बल की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी।”एक दिन जब भीम अपनी माँ करकटी के साथ पर्वत की गुफा में बैठा था, तो उसके मन में एक प्रश्न उठा। उसने अपनी माता से पूछा, “माँ, मेरे पिता कौन हैं? वे कहाँ हैं? मैंने उन्हें कभी देखा भी नहीं। आप हमेशा अकेली क्यों रहती हैं? क्या हमारा कोई परिवार नहीं है?”यह सुनकर करकटी का हृदय विषाद से भर गया। उसकी आँखों में अतीत की पीड़ा उभर आई। वह गहरी साँस लेकर बोली, “पुत्र, तुम्हारे पिता का नामकुंभकर्ण था। वे लंकापति रावण के अनुज और महान पराक्रमी योद्धा थे। किन्तु दुर्भाग्य से, त्रेतायुग में जब भगवान राम ने रावण से युद्ध किया, तो उन्होंने तुम्हारे पिता का भी वध कर दिया।”
भीम का मन क्रोध से भर उठा, लेकिन वह चुपचाप सुनता रहा। करकटी ने आगे कहा, “मेरे माता-पिता भी राक्षस कुल के थे, परंतु एक बार उन्होंने एक तपस्वी ब्राह्मण को मारने का प्रयास किया, जिसके कारण उन्हें एक ऋषि के शाप से भस्म हो जाना पड़ा। इस तरह, मेरा पूरा परिवार नष्ट हो गया। और यह सब… भगवान विष्णु के अवतार और उनके भक्तों के कारण हुआ!”यह कथा सुनकर भीम के हृदय में प्रतिशोध की अग्नि धधक उठी। उसकी मुट्ठियाँ बाँध गईं और उसके नेत्र क्रोध से लाल हो गए। उसने गर्जना करते हुए कहा, “माँ, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने पिता और परिवार की मृत्यु का बदला अवश्य लूँगा! जिन भगवान विष्णु और उनके भक्तों ने हमारे कुल का नाश किया है, मैं उन्हें धूल चटा दूँगा! मेरे बल का परिचय सारा संसार पाएगा!”अपने प्रतिशोध के संकल्प को पूरा करने के लिए भीम ने एक दिन अपनी माता करकटी से आज्ञा ली और घोर तपस्या करने के लिए गहन वन में चला गया। वहाँ उसने एकांत स्थान चुनकर कठोर तप शुरू किया। उसने न तो भोजन ग्रहण किया, न ही जल का सेवन किया। धूप हो या वर्षा, शीत हो या ताप—वह अपनी साधना में लीन रहा। वर्षों बीत गए, पर उसकी तपस्या में कोई शिथिलता नहीं आई।
हजारों वर्षों की अथक साधना के बाद, उसकी तपस्या से त्रिलोक के सृजनहार ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रकट होकर भीम से कहा, “वत्स! तुम्हारी इस निष्ठावान तपस्या ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया है। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। माँगो, तुम्हें क्या वरदान चाहिए?”भीम ने विनम्रतापूर्वक ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और अपने हृदय में छिपे प्रतिशोध को प्रकट करते हुए कहा, “हे सृष्टिकर्ता! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे ऐसा अद्भुत वर दीजिए कि कोई भी देवता, यहाँ तक कि स्वयं भगवान विष्णुभी मेरा सामना न कर सकें। मैं उन्हें पराजित करके अपने कुल के अपमान का बदला लेना चाहता हूँ!”ब्रह्मा जी ने उसकी इच्छा समझ ली, किंतु वे जानते थे कि कोई भी वरदान निर्बाध नहीं होता। अतः उन्होंने भीम को वरदान तो दे दिया, परंतु साथ ही एक महत्वपूर्ण शर्त भी जोड़ी—”तथास्तु! तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। कोई देवता तुम्हें परास्त नहीं कर पाएगा, किंतु यदि कोई सच्चा भक्त शिवजी की आराधना करे और भोलेनाथ प्रसन्न हो जाएँ, तो उनकी कृपा से तुम्हारा अंत संभव होगा।”
ब्रह्मा जी से अजेयता का वरदान पाकर भीम का हृदय अहंकार से भर गया। उसने स्वयं को समस्त ब्रह्मांड में सर्वशक्तिमान समझ लिया और उसकी महत्वाकांक्षाएँ असीमित हो गईं। अपनी शक्ति के नशे में चूर होकर उसने सबसे पहले देवलोक पर आक्रमण करने का निश्चय किया।वह अपने विशालकाय राक्षसी रूप में स्वर्गलोक पहुँचा और देवराज इंद्र के सामने उपस्थित हुआ। एक भीषण युद्ध छिड़ गया, जिसमें भीम ने अपने अद्भुत बल और वरदान के कारण इंद्र को पराजित कर दिया। उसके बाद उसने अन्य देवताओं—अग्नि, वरुण, यम और कुबेर—को भी युद्ध में हराकर स्वर्ग से खदेड़ दिया। देवताओं की पराजय के बाद भीम ने स्वयं को स्वर्ग का अधिपति घोषित कर दिया और वहाँ अपना आतंक फैलाने लगा।अपनी विजय से उत्साहित होकर भीम ने सभी धार्मिक कार्यों पर रोक लगा दी। उसने यज्ञ, दान, पूजा-पाठ और वैदिक अनुष्ठानों को बंद करवा दिया। वह सभी ऋषि-मुनियों और देवभक्तों को धमकाता हुआ घोषणा करता, “अब इस संसार में केवल मेरी पूजा होगी! सभी यज्ञ और भेंट मुझे अर्पित की जाएँ! मैं ही तुम्हारा देवता हूँ और मेरे अलावा किसी अन्य की आराधना करने वालों को मैं जीवित नहीं छोड़ूँगा!”
इस आतंक से त्रस्त होकर देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली और उनसे प्रार्थना की, “हे नारायण! इस राक्षस के अत्याचारों से हमें बचाइए। इसने समस्त स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया है और अब पृथ्वी पर भी अधर्म फैला रहा है।”भगवान विष्णु ने भीम का सामना किया, किंतु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण वे भी उसे परास्त नहीं कर पाए। यह देखकर भीम और अधिक उन्मत्त हो गया। उसने विष्णु को भी युद्ध में हरा दिया और अब उसकी दृष्टि पृथ्वी पर थी।अपनी विजय यात्रा को आगे बढ़ाते हुए भीम ने पृथ्वी पर आक्रमण कर दिया। उसने नगरों और ग्रामों को नष्ट करना शुरू कर दिया, ऋषियों के आश्रम जलाए और निर्दोष जनता पर अत्याचार किए। उसका आतंक इतना बढ़ गया कि सारा संसार भय से काँप उठा। अब प्रश्न यह था—क्या कोई ऐसी शक्ति थी जो इस अहंकारी राक्षस का अंत कर सकती थी?
अपनी विश्वविजयी अभियान के प्रथम चरण में राक्षसराज भीम ने कामरूप देश पर आक्रमण किया, जो अपनी समृद्धि और धार्मिकता के लिए विख्यात था। वहाँ के राजा सुदर्शन एक न्यायप्रिय, धर्मपरायण एवं प्रजावत्सल शासक थे, जो स्वयं भगवान शिव के परम भक्त थे। राजा सुदर्शन ने अपनी प्रजा को सदैव धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी थी और अपने राज्य में यज्ञ-हवन, दान-पुण्य तथा सत्कर्मों को बढ़ावा दिया था।भीम ने अपनी विशाल सेना के साथ कामरूप देश पर धावा बोल दिया। एक भीषण युद्ध छिड़ गया, जिसमें राजा सुदर्शन ने वीरतापूर्वक सामना किया, किंतु ब्रह्मा के वरदान से संपन्न भीम के समक्ष उनकी सेना टिक न सकी। अंततः भीम ने राजा सुदर्शन को पराजित कर उनकी राजधानी पर अधिकार कर लिया और स्वयं को नया सम्राट घोषित कर दिया। धर्मात्मा राजा को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया गया।किंतु राजा सुदर्शन का आत्मबल अडिग था। उन्होंने कारावास को भी अपनी साधना का स्थल बना लिया। कारागार की मिट्टी से उन्होंने एक सुंदर शिवलिंग का निर्माण किया और भक्तिपूर्वक उसकी स्थापना की। प्रतिदिन प्रातःकाल वे मानसिक रूप से गंगा स्नान करते, फिर उस मिट्टी के शिवलिंग का पंचामृत से अभिषेक करते। पार्थिव पूजन के साथ-साथ वे “ॐ नमः शिवाय” महामंत्र का निरंतर जाप करते रहते। उनकी पत्नी रानी लीलावती भी एक पतिव्रता साध्वी थीं,जो अपने पति के साथ कारागार में ही रहकर पूर्ण निष्ठा से भगवान शंकर की आराधना करने लगीं।
एक दिन जब राक्षसराज भीम अपने महल में विश्राम कर रहा था, तभी उसके एक चापलूस मंत्री ने उसे सूचना दी—”महाराज! वह कायर राजा सुदर्शन जिसे आपने कारागार में डाल रखा है, वह प्रतिदिन शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की पूजा कर रहा है! उसका दावा है कि शिव की कृपा से आपका विनाश होगा!”यह सुनते ही भीम का रक्त खौल उठा। उसका क्रोध इतना भयानक था कि उसके नेत्र लाल हो गए और मुखमंडल विकृत हो उठा। वह तत्काल अपनी विशाल नंगी तलवार लेकर कारागार की ओर चल पड़ा। उसके पैरों की थाप से पृथ्वी काँपने लगी और उसके क्रोधित स्वर से वायुमंडल गूँज उठा।जब वह कारागार पहुँचा तो उसने देखा कि राजा सुदर्शन शांत मुद्रा में बैठकर मिट्टी के बने शिवलिंग पर पुष्प अर्पित कर रहे हैं। यह दृश्य देखकर भीम आगबबूला हो गया और गर्जना करते हुए बोला—”अरे मूर्ख राजा! तू यह क्या कर रहा है? क्या तूने मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस किया?”राजा सुदर्शन ने धीरे से आँखें उठाईं और निर्भय स्वर में उत्तर दिया—”हे राक्षसराज! मैं तो अपने आराध्य देव, जगत के पालनहार, महादेव शंकर की पूजा कर रहा हूँ। यही मेरा धर्म है और यही मेरा कर्तव्य!”
यह सुनकर भीम और अधिक क्रुद्ध हो उठा। उसने घृणा भरे स्वर में कहा—”तू मेरे सामने शिव की बात करता है? मैं तुझे दिखाता हूँ कि तेरे इस मिट्टी के पुतले का क्या होता है!” इतना कहकर उसने अपनी विशाल तलवार उठाई और शिवलिंग को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ा।किंतु जैसे ही उसकी तलवार शिवलिंग की ओर बढ़ी, वैसे ही अचानक उस मिट्टी के शिवलिंग से एक तेजोमयी प्रकाश फूट पड़ा। पल भर में ही वह संपूर्ण कारागार दिव्य ज्योति से भर गया। तभी उस प्रकाशपुंज से स्वयं भगवान शंकर अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हो गए! उनके मस्तक पर चंद्रमा विराजमान था, गले में सर्पोंका हार था और हाथ में त्रिशूल लिए हुए थे। उनके प्रकट होते ही सारा वातावरण “हर-हर महादेव” के जयघोष से गूँज उठा!
भीम अचानक हुए इस दिव्य घटनाक्रम से स्तब्ध रह गया। उसका हाथ उठा हुआ ही रह गया और तलवार हवा में ठिठक गई। अब उस अहंकारी राक्षस के समक्ष वही क्षण आ खड़ा हुआ था जिसकी चेतावनी ब्रह्मा जी ने उसे वरदान देते समय दी थी!भगवान शिव के प्रकट होते ही सम्पूर्ण वातावरण दिव्य तेज से आलोकित हो उठा। उनके क्रोधित नेत्रों से अग्नि की लपटें निकल रही थीं और उनका रौद्र रूप देखकर स्वयं समय भी ठहर सा गया। महादेव ने गर्जना करते हुए कहा—”अरे दुरात्मन! तूने मेरे परम भक्त को सताने का साहस किया? मैं भक्तवत्सल शंकर आज तेरे अहंकार का अंत करने आया हूँ!”यह कहते हुए भगवान शिव ने अपने दिव्य त्रिशूल से ऐसा प्रहार किया कि भीम के हाथ में खड़ी विशाल तलवार दो टुकड़ों में चकनाचूर हो गई। उसका धातु से बना विशाल फलक जमीन पर गिरते ही ध्वनि से सम्पूर्ण कारागार गूँज उठा।
तभी दोनों के मध्य एक भीषण युद्ध छिड़ गया। भीम ने अपनी सम्पूर्ण राक्षसी शक्ति से भगवान शिव पर प्रहार किया, किन्तु महादेव के प्रत्येक त्रिशूल प्रहार से उसका बल टूटता चला गया। उनके युद्ध की प्रतिध्वनि से सम्पूर्ण ब्रह्मांड काँप उठा—पाताल लोक से लेकर ब्रह्मलोक तक सभी स्थानों में इस संघर्ष की गूँज सुनाई देने लगी। स्वर्ग के सिंहासन हिलने लगे और समुद्र में ज्वारभाटा उठ खड़ा हुआ।इस समय देवर्षि नारद वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की—”हे त्रिलोकीनाथ! इस अहंकारी राक्षस ने तीनों लोकों को पीड़ित कर रखा है। इसने देवताओं को स्वर्ग से खदेड़ दिया, ऋषियों के यज्ञ भंग किए और मनुष्यों पर अत्याचार किए। हे कैलाशपति! कृपया इस पापी का वध करके सृष्टि को इसके आतंक से मुक्ति दिलाइए।”
भगवान शिव ने नारद जी की प्रार्थना सुन ली। उन्होंने केवल एक बार “हुं” करते हुए अपना भीषण “हुंकार” किया। उसी क्षण भीम के विशालकाय शरीर से आग की लपटें फूट पड़ीं और वह जलते-जलते भस्म हो गया! उसकी राख का एक ढेर मात्र शेष रह गया।भीम के विनाश के साथ ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड में शांति छा गई। देवताओं ने स्वर्ग लोक पर पुनः अधिकार कर लिया, ऋषि-मुनियों ने यज्ञ करना प्रारम्भ किया और मनुष्यों ने निश्चिंत होकर सुखपूर्वक जीवन यापन करना शुरू कर दिया। राजा सुदर्शन को उनका राजपाट वापस मिल गया और वे पुनः धर्मपूर्वक शासन करने लगे।जब भगवान शिव ने अहंकारी राक्षस भीम का वध कर दिया, तब सभी देवतागण और राजा सुदर्शन भावविभोर होकर भोलेनाथ के समक्ष प्रणाम करते हुए बोले—”हे त्रिलोकीनाथ! हे कैलाशपति! आपने अपने इस अद्भुत प्राकट्य से न केवल हमारी रक्षा की, बल्कि समस्त सृष्टि को इस महान संकट से मुक्ति दिलाई। हे प्रभु! हमारी विनती है कि कृपा करके इस पवित्र स्थान पर सदैव के लिए निवास करें, जहाँ आपने अपने भक्त की रक्षा करते हुए इस दुष्ट राक्षस का वध किया। आपके दिव्य दर्शन मात्र से ही सभी भक्तों का कल्याण होगा और यह स्थान समस्त पापों से मुक्ति दिलाने वाला बनेगा।”
भक्तों की इस प्रार्थना से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना मंगलमय आशीर्वाद देते हुए कहा—”तथास्तु! मैं इस स्थान पर सदैव के लिए ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान होऊँगा। चूँकि यहाँ मैंने भीम नामक राक्षस का वध किया है, अतः मैं ‘भीमाशंकर’ नाम से विख्यात होऊँगा। जो भी भक्त सच्चे मन से यहाँ मेरी पूजा-अर्चना करेगा, उसके सभी कष्ट दूर होंगे और उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।”इस प्रकार उसी क्षण भगवान शिव एक दिव्य ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ प्रतिष्ठित हो गए। उनका यह स्वरूप अत्यंत तेजस्वी और मनोहर था। देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा कीतभी से यह पवित्र तीर्थस्थल “भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग” के नाम से विख्यात हुआ, जो समस्त भारतवर्ष में स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महत्त्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग है।