kedarnath Jyotirling Story ( कहानी )
महाभारत का विराट और भीषण युद्ध अपने समापन पर पहुँच चुका था। कुरुक्षेत्र के विशाल मैदान में लड़ी गई यह लड़ाई न केवल भारतीय इतिहास बल्कि विश्व इतिहास के सबसे भयंकर युद्धों में गिनी जाती है, जहाँ अठारह अक्षौहिणी सेना के लाखों योद्धाओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। कौरवों का पूर्णतः विनाश हो चुका था और पांडवों ने धर्म की स्थापना के लिए युद्ध जीत लिया था। परंतु विजय के इस पल में भी उनके हृदय को सच्ची शांति नहीं मिल पा रही थी। युद्ध समाप्त होने के बाद जब धूल जम गई, खून की नदियाँ सूख गईं और शस्त्रों का शोर थम गया, तब पांडवों के मन में एक गहरा आंतरिक संघर्ष शुरू हुआ।
पांडवों ने न्याय और धर्म के मार्ग पर चलकर युद्ध लड़ा था, फिर भी उनके मन में यह भाव उठने लगा कि इस महासंग्राम में उनकी भी भूमिका थी। अपने ही भाइयों, कुटुम्बियों और गुरुजनों के विरुद्ध लड़े गए इस युद्ध में उन्होंने अपने ही कुल के अनेक लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। गुरु द्रोणाचार्य जैसे महान आचार्य, पितामह भीष्म जैसे तपस्वी, और कर्ण जैसे महारथी इस युद्ध में मारे गए थे। यह सब सोचकर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव के हृदय में एक गहरी पीड़ा भर गई। उन्हें लगने लगा कि इस युद्ध में हुई असंख्य हत्याओं का पाप उनके सिर पर भी है।
धर्मराज युधिष्ठिर, जो सदैव सत्य और न्याय के पक्ष में रहे थे, इस युद्ध के परिणामों से अत्यंत व्यथित हो गए। उन्होंने अपने छोटे भाइयों से कहा, “हमने धर्म की रक्षा के नाम पर युद्ध किया, किंतु क्या इतने प्राणियों का वध करना वास्तव में धर्म था? हमारे कारण ही हमारे ही कुल का नाश हुआ है। क्या हम इस पाप के भार से कभी मुक्त हो पाएँगे?” अर्जुन, जिन्होंने स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात मार्गदर्शन में युद्ध लड़ा था, वे भी अब संदेह से भर गए थे। उन्होंने कहा, “हमने युद्ध तो जीत लिया, परंतु मेरे बाणों ने असंख्य जीवन ले लिए। मेरे गांडीव से छूटे हर बाण ने किसी न किसी का वध किया। क्या इन पापों का कोई प्रायश्चित है ?” भीम, जिन्होंने अपने अद्भुत बल से दुर्योधन सहित अनेक कौरव योद्धाओं को मार गिराया था, वे भी अब शांत और विचारमग्न हो गए थे। उनके हृदय में भी यह प्रश्न उठने लगा कि क्या यह सब वास्तव में आवश्यक था? क्या प्रतिशोध की यह आग इतनी भयानक होनी चाहिए थी?
इस मानसिक संकट और आत्मग्लानि की घड़ी में भगवान श्रीकृष्ण, जो सदैव पांडवों के मार्गदर्शक और सखा रहे थे, कृष्ण ने उन्हें समझाया कि इस गहन पाप-बंधन से मुक्ति पाने का केवल एक ही उपाय है—भगवान शंकर की असीम कृपा प्राप्त करना। श्रीकृष्ण ने कहा, ‘शिव ही संहारकर्ता हैं, वे काल के भी काल हैं, जीवन-मृत्यु, पाप-पुण्य के अधिपति हैं।
उनकी अनुकंपा के बिना इस महापाप से मुक्ति असंभव है। केवल उनकी दया ही तुम्हारे हृदय के इस भारी बोझ को हल्का कर सकती है।’ इस प्रकार पांडवों ने तीर्थयात्रा का मार्ग अपनाया और भगवान शिव की खोज में निकल पड़े। वे जानते थे कि केवल महादेव की कृपा ही उन्हें इस भीषण युद्ध के पापों से मुक्ति दिला सकती है। उनकी यह यात्रा केवल एक भौगोलिक सफर नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि की एक आध्यात्मिक खोज थी। पांडवों ने सर्वप्रथम काशी (वाराणसी) की पवित्र भूमि पर पहुँचकर भगवान शिव की आराधना प्रारंभ की।
काशी, जो स्वयं शिव की नगरी है, वहाँ उन्होंने कठोर तपस्या की, वैदिक मंत्रों का जाप किया और शिवलिंग की विधिवत पूजा-अर्चना की। परंतु, भोलेनाथ प्रकट नहीं हुए। निराश न होकर उन्होंने फिर गोकर्ण जैसे पवित्र तीर्थस्थल पर जाकर शिव की उपासना की, किंतु वहाँ भी उन्हें शिव के दर्शन नहीं मिले। वास्तव में, भगवान शिव पांडवों से रुष्ट थे। युद्ध में हुई अत्यधिक हिंसा और अपने ही कुल के विनाश ने उन्हें क्रोधित कर दिया था। भले ही पांडवों ने धर्म के लिए युद्ध लड़ा था, लेकिन इतने वीर योद्धाओं की मृत्यु का भार उन पर भी था। शिव जानते थे कि पांडवों ने केवल धर्म के लिए ही नहीं, बल्कि अपने स्वार्थ और प्रतिशोध की भावना से भी युद्ध लड़ा था, इसलिए वे उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं थे।
जब पांडवों को लगा कि उनकी तपस्या से शिव प्रसन्न नहीं हो रहे हैं, तो उन्होंने वाराणसी छोड़कर हिमालय की ओर प्रस्थान किया। हिमालय, जो भगवान शिव का नित्य निवास स्थान है, वहाँ जाकर उन्होंने फिर से कठोर साधना शुरू की। उन्हें विश्वास था कि यदि वे सच्चे मन से प्रायश्चित करेंगे, तो शिव अवश्य प्रकट होंगे। हिमालय की बर्फीली चोटियों और निर्जन स्थलों में उन्होंने कठिन तप किया। किंतु भगवान शिव अभी भी उनसे नाराज थे, क्योंकि उन्होंने अपने ही कुल और धर्म के योद्धाओं की हत्या की थी। वे पांडवों से मिलने के लिए इच्छुक नहीं थे। इस कारण वे वाराणसी छोड़कर हिमालय की और चले गए। जब पांडव उनके पीछे-पीछे हिमालय पहुँचे, तब भगवान शिव ने अपने आपको एक बैल के रूप में परिवर्तित कर लिया और एक बैलों के समूह में शामिल हो गए।
तभी वहाँ एक अद्भुत घटना घटित हुई। पांडवों को कुछ असामान्य लगा – इतने सारे बैल इस हिमालयी क्षेत्र में क्या कर रहे हैं? भीम ने एक चतुर युक्ति सोची। अपने विशालकाय शरीर और अदम्य बल का उपयोग करते हुए, उन्होंने दो पहाड़ों के बीच अपने पैर फैला दिए और सभी बैलों को मजबूर किया कि वे उनके पैरों के नीचे से ही गुजरें।
अधिकांश बैल तो निकल गए, किंतु एक बैल भीम के पैरों के नीचे से जाने में संकोच करने लगा। भीम को तत्काल समझ आ गया – यह कोई साधारण बैल नहीं, बल्कि स्वयं साक्षात् महादेव हैं! ज्योंही बैलरूपी शिव वहाँ से निकलने लगे, भीम ने तुरंत उन्हें पकड़ने का प्रयास किया। उन्होंने बैल की पीठ मजबूती से थाम ली। किंतु भगवान शिव तो अजेय थे। वे धरती में समाने लगे। तब भीम ने अपनी अटूट भक्ति और पूरी शक्ति से बैल की पीठ को पकड़े रखा।
अंततः भगवान शिव ने भीम की अदम्य भक्ति और दृढ़ संकल्प को देखकर अपने मूल स्वरूप में प्रकट होना स्वीकार किया। भीम ने विनम्र भाव से प्रार्थना की, “हे महादेव! हम पापियों पर दया कीजिए। हमने अपने ही कुल का विनाश किया है, कृपया हमें मुक्ति का मार्ग दिखाइए।” भगवान शिव ने करुणामय स्वर में आशीर्वाद दिया, “तुम्हारी निष्कपट भक्ति और हृदय से किया गया पश्चाताप मुझे प्रसन्न कर गया। अब तुम सभी पापों से मुक्त हो चुके हो।
यह पावन भूमि अब मेरे बारह ज्योतिर्लिंगों में श्रेष्ठतम के रूप में ‘केदारनाथ’ नाम से विख्यात होगी।” इस प्रकार भोलेनाथ ने पांडवों के कष्टों का हरण कर उन्हें मुक्ति का वरदान दिया। वे स्वयं यहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हुए, जो आज केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से पूजित है।
पांडवों ने इस दिव्य स्थल पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया, जहाँ भगवान शिव की पृष्ठभाग (पीठ) स्वरूप में आराधना प्रारम्भ हुई। ऐतिहासिक मान्यतानुसार, आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने इस प्राचीन मंदिर का पुनरुद्धार करवाया तथा केदारनाथ को चार धामों (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री) की पवित्र चतुष्टय में सम्मिलित किया। इस प्रकार यह तीर्थ केवल ज्योतिर्लिंग ही नहीं, वरन् चार धाम यात्रा के पवित्रतम स्थल के रूप में हिन्दू धर्म के सर्वोच्च तीर्थस्थानों में गिना जाने लगा। आज भी यह स्थान भक्तों के लिए मोक्ष प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ स्थान माना जाता है।
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