Omkareshwar Jyotirling : विंध्याचल पर्वत का कैसे टूटा घमंड जानिए इस कहानी में 2025

Omkareshwar Jyotirling Story ( कहानी )

यह कथा शिव पुराण के “कोटिरुद्र संहिता” और “वायवीय संहिता” पर आधारित है। भारतवर्ष के मध्य में स्थित विंध्याचल पर्वत प्राचीन काल से ही अपनी अद्भुत विशालता और मनोहारी सौंदर्य के लिए विख्यात रहा है। इसकी गगनचुम्बी चोटियाँ मानो स्वर्गलोक को छूने का प्रयास करती प्रतीत होती थीं, जबकि इसके विस्तृत वक्षस्थल पर फैले हरे-भरे वन और निर्झरिणियाँ प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य का प्रदर्शन करते थे। विंध्याचल की छाया इतनी विशाल थी कि सम्पूर्ण क्षेत्र उसकी शीतल छाया में समा जाता था, मानो प्रकृति ने स्वयं इस पर्वत को धरती का संरक्षक नियुक्त किया हो।

किन्तु इस भव्यता के पीछे एक गहरा दुःख छिपा हुआ था। विंध्याचल का हृदय अहंकार और ईर्ष्या की अग्नि में जल रहा था। उसे इस बात का सदैव कष्ट रहता था कि समस्त देवता, ऋषि-मुनि और साधक मेरु पर्वत को सर्वाधिक पूजनीय और महान मानते हैं।12C Omkareshwar उसके मन में यह विचार बार-बार कौंधता रहता था – “क्या मैं मेरु से किसी भी प्रकार कम हूँ? क्या मेरी विशालता, मेरा वैभव और मेरी महत्ता उससे कुछ भी कम है?” यह विचार धीरे-धीरे उसके हृदय में विष की तरह फैलता गया और अंततः उसने एक दृढ़ निश्चय किया कि वह मेरु पर्वत से भी अधिक ऊँचा होकर ही दम लेगा।समय के साथ विंध्याचल ने अपनी ऊँचाई बढ़ानी प्रारंभ कर दी। प्रारंभ में तो यह वृद्धि मंद गति से हो रही थी, किन्तु जैसे-जैसे उसका अहंकार बढ़ता गया, वैसे-वैसे उसकी ऊँचाई भी तीव्र गति से बढ़ने लगी। उसका यह अहंकार इतना विशाल हो गया कि उसकी बढ़ती हुई चोटियों ने सूर्यदेव के मार्ग को भी अवरुद्ध करना शुरू कर दिया।

इसका परिणाम भयानक हुआ: सूर्य का प्रकाश धरती तक न पहुँचने से सम्पूर्ण भूमण्डल पर घोर अंधकार छा गया नदियों का जल सूखने लगा, जिससे जलचरों का अस्तित्व संकट में पड़ गया वनस्पतियाँ मुरझाने लगीं, 18B Omkareshwarजिससे पशु-पक्षियों को भोजन का अभाव हो गया ऋषि-मुनियों के यज्ञ-अनुष्ठान बाधित हो गए, जिससे देवताओं को हवि नहीं मिल पा रही थी समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया, मानो प्रलय का समय आ गया हो इस भीषण संकट से मुक्ति पाने के लिए समस्त ऋषि-मुनि महर्षि अगस्त्य के पास पहुँचे, जो अपनी अलौकिक बुद्धिमत्ता, असीम तपस्या और विवेक के लिए त्रिलोक में विख्यात थे। महर्षि अगस्त्य ने इस समस्या पर गम्भीरता से विचार किया और निर्णय लिया कि वे स्वयं विंध्याचल पर्वत के पास जाकर उसे समझाएँगे।

महर्षि जानते थे कि क्रोध या बल प्रयोग से अहंकार का निवारण नहीं हो सकता। उन्होंने एक सूक्ष्म योजना बनाई। जब वे विंध्याचल के समक्ष पहुँचे, तो उन्होंने अत्यंत नम्र भाव से कहा: “हे महान पर्वतराज! हे विंध्याचल!25A 1 Omkareshwar मैं दक्षिण दिशा की एक महत्वपूर्ण यात्रा पर जा रहा हूं। क्या तुम मेरे पास आकर अपना शीर्ष तय करके रखोगे, जिससे मैं सरलता से पार हो सकूं?” विंध्याचल, जो महर्षि अगस्त्य के तपोबल और उनकी विनम्र वाणी से अभिभूत हो गया, तत्काल उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसने सोचा कि यह तो एक छोटी सी बात है, मैं थोड़े समय के लिए झुक जाता हूँ। किन्तु महर्षि अगस्त्य दक्षिण की ओर जाकर कभी वापस नहीं लौटे, और इस प्रकार विंध्याचल सदैव के लिए नतमस्तक हो गया।

इस घटना के पश्चात एक दिव्य घटना घटित हुई। देवर्षि नारद, जो सदैव भक्ति और ज्ञान का प्रसार करने में संलग्न रहते हैं, अपनी दिव्य वीणा की मधुर तान और कमण्डल से बहती गंगाजल की धारा के साथ वहाँ प्रकट हुए। “नारायण-नारायण” के उनके पावन मंत्र से सम्पूर्ण वातावरण पवित्र हो उठा, मानो अचानक वहाँ के वातावरण में एक दिव्य प्रकाश फैल गया हो। नारद मुनि ने विंध्याचल की ओर करुणामय दृष्टि से देखते हुए कहा: “हे पर्वतराज! हे विंध्याचल! पर्वतराज और महिमामयी पर्वत। यह संपूर्ण भूमंडल में स्थित अद्वितीय स्थान है। लेकिन क्या आपने कभी अज्ञातवास से सोचा है कि मेरु पर्वत की वास्तविक महत्ता का रहस्य क्या है?”

विंध्याचल ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया: “हे देवर्षि! हे त्रिकालज्ञ! मैं एक अज्ञानी हूं। 33B Omkareshwarकृपया मुझे दिशानिर्देश और निर्देश दें कि मेरु की महिमा का वास्तविक रहस्य क्या है?” नारद जी मुस्कुराए और गम्भीर स्वर में समझाया: “सुनो विंध्याचल! मेरु की महिमा उनके दर्शन में नहीं, बल्कि उनके निरंकारी स्वभाव में निहित है। वह स्वर्गलोक तक पहुँचता है क्योंकि उन्होंने कभी नहीं माना। उन्होंने भगवान शिव की अर्धांगिनी पार्वती को जन्म दिया, जिससे वह स्वयं शिवजी के आदर्श बन गए। यदि आप सच्चे गौरव और शाश्वत प्रतिष्ठा चाहते हैं, तो भगवान शिव की महिमा का मार्ग अपनाओ। वे ही वास्तविक महत्ता प्रदान कर सकते हैं।

नारद मुनि के इन वचनों ने विंध्याचल के हृदय में क्रान्ति ला दी।45B 1 Omkareshwar उसने तत्काल नारद जी के चरणों में नतमस्तक होकर पूछा: “हे देवर्षि! हे भक्तिवत्सल! मुझ अज्ञानी को कृपया यह भी बताएं कि मैं किस प्रकार भगवान शिव की आराधना करूं? उनकी कृपा प्राप्त करने का सही मार्ग क्या है?” नारद मुनि ने कृपापूर्वक उपदेश दिया: “हे विंध्याचल! सुनो। नर्मदा नदी के इस पवित्र तट पर ही पूजा के लिए सर्वोत्तम स्थान है। यहां पर ‘ॐ नमः शिवाय’ महामंत्र का निरंतर जाप करो। शुद्ध मिट्टी से पार्थिव लिंग का निर्माण कर अपनी विधि-विधान से पूजा करो। जल, बिल्वपत्र, धतूरा और अक्षत से शिवजी को प्रसन्न करो। भगवान की भक्ति से वे पवित्र आत्मा की मूर्ति बनाते हैं।

Omkareshwarइस प्रकार नारद मुनि के मार्गदर्शन में विंध्याचल पर्वत ने नर्मदा तट पर कठोर तपस्या प्रारंभ की। उसकी यह साधना अत्यंत कठिन थी: उसने निराहार रहकर केवल जलपान करना स्वीकार किया प्रतिदिन शुद्ध मिट्टी से पार्थिव लिंग का निर्माण कर उसकी विधिवत पूजा की ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का अखंड जाप किया सर्दी, गर्मी, वर्षा – किसी भी मौसम में उसकी साधना में बाधा नहीं आई वर्षों की कठिन साधना के पश्चात जब विंध्याचल की तपस्या परिपक्व हुई, तो भगवान शंकर स्वयं प्रकट हुए। उनके मस्तक पर चंद्रमा विराजमान था, गले में नागदेवता लिपटे हुए थे, और सम्पूर्ण शरीर से दिव्य तेज प्रकाशित हो रहा था। भगवान शिव ने मधुर स्वर में विंध्याचल से कहा: “हे पर्वतराज! इस निष्काम तपस्या से मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई है। अब वर मांगो – जो कुछ भी इच्छा हो, मैं आशीर्वाद देता हूं।”

55A Omkareshwarविंध्याचल पर्वत ने भगवान शिव के चरणों में सिर झुकाते हुए विनम्र भाव से कहा: “हे महादेव! हे त्रिलोकीनाथ! मैं एक अज्ञानी प्राणी हूं, जिसने संसार को हवस दिया है। आपकी कृपा से मुझे जो ज्ञान प्राप्त हुआ है। अब मैं केवल यही चाहता हूं कि आप मुझे वास्तविक महत्ता प्रदान करें – वह महत्ता जो हव्वा से नहीं, बल्कि भक्ति से प्राप्त हुआ है।” भगवान शिव ने प्रसन्न होकर कहा: “तथास्तु!” इसके पश्चात एक अद्भुत चमत्कार हुआ।

62C Omkareshwarभगवान शिव स्वयं एक दिव्य ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए जो ‘ॐ’ के आकार में था। इसी का नाम ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग पड़ा। साथ ही, विंध्याचल द्वारा मिट्टी से निर्मित उस पार्थिव लिंग को भी भगवान शिव ने दिव्यता प्रदान की, जो ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार विंध्याचल पर्वत की इस पावन कथा के माध्यम से हमें ज्ञात होता है कि किस प्रकार अहंकार के परित्याग और सच्ची भक्ति से व्यक्ति (या पर्वत) वास्तविक महत्ता प्राप्त कर सकता है। ओंकारेश्वर और ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग आज भी भक्तों के लिए मोक्ष का द्वार हैं, जो इस बात का प्रमाण हैं कि भगवान शिव सच्चे भक्तों पर सदैव कृपा करते हैं।

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