Somnath Jyotirling Story ( कहानी )
प्राचीन काल में, चंद्रदेव अपनी अनुपम सुंदरता, दिव्य आभा और अद्भुत चमक के लिए प्रसिद्ध थे। वे सोलह कलाओं से पूर्ण थे और देवताओं के बीच एक विशेष स्थान रखते थे। उनकी आभा इतनी अद्वितीय थी कि समस्त देवगण उनकी ज्योति से प्रभावित रहते थे। स्वर्गलोक में उनकी सुंदरता की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती थी। इसी कारण वे देवताओं के सबसे आकर्षक और प्रभावशाली देवता माने जाते थे। चंद्रदेव का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं से हुआ था, जो कि 27 नक्षत्रों का प्रतीक थीं। वे सभी अत्यंत रूपवती, विदुषी और गुणवान थीं। प्रत्येक कन्या ने चंद्रदेव से समान प्रेम और स्नेह की आशा की थी। लेकिन चंद्रदेव का विशेष झुकाव केवल रोहिणी की ओर था। रोहिणी दक्ष प्रजापति की पुत्रियों में सबसे सुंदर, कोमल स्वभाव की और मोहक व्यक्तित्व वाली थी। उसका सौंदर्य अनुपम था, उसकी मुस्कान मन को मोह लेने वाली थी। चंद्रदेव उसके प्रेम में इतने लीन हो गए कि उन्होंने अपनी अन्य पत्नियों की उपेक्षा करनी शुरू कर दी।
वे अपना अधिकांश समय रोहिणी के साथ व्यतीत करते, जिससे अन्य 26 पत्नियाँ अत्यंत दुखी और असंतुष्ट हो गईं। उनका विवाह चंद्रदेव से इसलिए हुआ था कि वे सभी एक समान रूप से उनके प्रेम और स्नेह की अधिकारी होंगी, लेकिन चंद्रदेव का स्नेह केवल रोहिणी तक सीमित था। उनकी उपेक्षा से क्षुब्ध होकर सभी बहनों ने अपने पिता दक्ष प्रजापति से अपनी व्यथा सुनाई और न्याय की गुहार लगाई।
दक्ष प्रजापति बहुत ही शक्तिशाली, तेजस्वी और तपस्वी ऋषि थे। वे अपने सिद्धांतों के प्रति अडिग रहते थे और किसी भी प्रकार के अन्याय को सहन नहीं कर सकते थे। जब उन्होंने अपनी पुत्रियों का दुख सुना, तो वे अत्यंत क्रोधित हो उठे। उन्होंने चंद्रदेव को बुलाकर उन्हें समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा, “हे चंद्रदेव! तुम्हारा विवाह मेरी 27 पुत्रियों से हुआ है। यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम सभी के प्रति समान प्रेम और स्नेह रखो। केवल रोहिणी को महत्व देना अन्याय है। यदि तुमने अपना व्यवहार नहीं बदला, तो तुम्हें इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।” लेकिन चंद्रदेव, जो रोहिणी के प्रेम में अंधे हो चुके थे, उन्होंने दक्ष प्रजापति की बातों को अनसुना कर दिया। वे अपनी प्रिया रोहिणी के प्रति ही आसक्त रहे और अपनी अन्य पत्नियों की उपेक्षा करते रहे।
दक्ष प्रजापति का धैर्य समाप्त हो गया। उन्होंने अपने तेजस्वी स्वर में चंद्रदेव को शाप दिया, “हे चंद्रदेव! तुम्हारा यह अहंकार अब अधिक समय तक नहीं चलेगा। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हारी यह अद्भुत आभा धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगी।” तुम अपनी चमक खो दोगे और तुम्हारा तेज मंद पड़ जाएगा।” दक्ष के इस शाप का प्रभाव तुरंत ही दिखने लगा। चंद्रदेव की दिव्य आभा धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। जो चंद्रमा पहले पूर्णिमा की रात स्वर्ण आभा बिखेरता था, उसकी चमक अब धीरे-धीरे घटने लगी। उनका तेज मंद पड़ गया और वे अत्यंत दुर्बल हो गए। इसका प्रभाव केवल स्वर्गलोक तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पूरे ब्रह्मांड में असंतुलन उत्पन्न हो गया। पृथ्वी पर समुद्र की लहरें असामान्य रूप से हिलोरें लेने लगीं। नक्षत्रों का संतुलन बिगड़ने लगा और समय का प्रवाह बाधित हो गया।
देवताओं और ऋषियों ने यह विनाशकारी स्थिति देखी और चिंतित हो उठे। यदि चंद्रमा का अस्तित्व समाप्त हो जाता, तो संपूर्ण सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता। अतः देवताओं ने दक्ष प्रजापति से अनुरोध किया कि वे अपने शाप को वापस लें। लेकिन दक्ष अपने निर्णय से पीछे हटने को तैयार नहीं थे। जब कोई समाधान नहीं मिला, तो देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली। उन्होंने विष्णुजी से विनती की कि वे चंद्रदेव को इस संकट से उबारने का उपाय सुझाएँ। भगवान विष्णु ने कहा, “इस शाप को समाप्त करना असंभव है, क्योंकि यह एक महान तपस्वी के वचन हैं। लेकिन इसका समाधान केवल भगवान शिव के पास है। वे ही चंद्रदेव को इस संकट से मुक्त कर सकते हैं।”
अब चंद्रदेव अत्यंत दुर्बल हो चुके थे। उनका तेज लगभग समाप्त हो चुका था। वे निराश होकर भगवान शिव की शरण में जाने का निश्चय करते हैं। चंद्रदेव पृथ्वी पर प्रभास क्षेत्र वर्तमान में सोमनाथ में पहुँचे और वहाँ उन्होंने घोर तपस्या आरंभ की। उन्होंने वर्षों तक कठोर तप किया, रात-दिन महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया और भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए समर्पित हो गए। उनकी अटूट श्रद्धा और भक्ति को देखकर भगवान शिव अंततः प्रकट हुए। चंद्रदेव शिव के चरणों में गिर पड़े और करुणा भरे स्वर में बोले, “हे महादेव! मैं आपकी शरण में आया हूँ।
मेरे ससुर दक्ष प्रजापति ने मुझे शाप दिया है, जिससे मेरी चमक समाप्त हो रही है। कृपया मुझे इस कष्ट से मुक्त करें।” भगवान शिव, जो करुणा और कृपा के सागर हैं, उन्होंने चंद्रदेव की भक्ति को देखकर कहा, “हे चंद्र! दक्ष प्रजापति का शाप पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता। लेकिन मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ जिससे संतुलन बना रहेगा। अब से, तुम्हारी चमक कभी पूरी तरह समाप्त नहीं होगी। तुम कृष्ण पक्ष में धीरे-धीरे क्षीण होते जाओगे, लेकिन शुक्ल पक्ष में पुनः अपनी आभा प्राप्त करोगे। यह चक्र सदा चलता रहेगा।”
भगवान शिव के इस आशीर्वाद से चंद्रदेव का कष्ट समाप्त हो गया। वे पुनः अपनी आभा प्राप्त करने लगे और अपने दिव्य कर्तव्यों का निर्वहन करने लगे। अपनी मुक्ति के लिए आभार स्वरूप, चंद्रदेव ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे प्रभास क्षेत्र में सदैव निवास करें। भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और वहीं स्वयं को एक ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित किया। यह ज्योतिर्लिंग सोमनाथ कहलाया, जिसका अर्थ है ‘चंद्रमा के स्वामी।’ इस प्रकार, सोमनाथ ज्योतिर्लिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में प्रथम बना और भगवान शिव की अनंत कृपा का प्रतीक बन गया। आज भी यह मंदिर भारतीय संस्कृति और भक्ति का महान केंद्र बना हुआ है। यह कथा हमें सिखाती है कि घमंड का परिणाम दुखद होता है, लेकिन सच्ची भक्ति और समर्पण से कोई भी कठिनाई दूर की जा सकती है। भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा सदा करते हैं।
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